संवैधानिक उपचार का अधिकार क्या है?

भारत का संविधान,1950, भारत के नागरिकों को कुछ मौलिक अधिकार देता है। अगर इन अधिकारों का हनन किया जाता है, तो नागरिकों को उसे लागू कराने का अधिकार होना चाहिए या उल्लंघन की स्थिति में अधिकारों को सुनिश्चित करने का प्रावधान भी होना चाहिए। संविधान कुछ उपचारों का प्रावधान करता है जिसका उपयोग लोग अपने मौलिक अधिकारों को लागू कराने के लिए कर सकते हैं। कोई भी व्यक्ति अपने मौलिक अधिकारों को लागू कराने के लिए सुप्रीम कोर्ट या संबंधित हाई कोर्ट में एक रिट याचिका दायर कर सकता है। यह रिट याचिका पांच प्रकार के संवैधानिक उपचारों में से किसी एक प्रकार की हो सकती है। संवैधानिक उपचारों के लिए सुप्रीम कोर्ट में आवेदन करने का अधिकार भी एक मौलिक अधिकार ही है।

संवैधानिक उपचार का अधिकार कितने प्रकार के होते हैं?

कुल पांच प्रकार के संवैधानिक उपचार उपलब्ध हैं। वे इस प्रकार से हैं:

1. हैबियस कॉर्पस/ बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका ‘हैबियस कॉर्पस’ शब्द का शाब्दिक अर्थ है, किसी भी व्यक्ति को ‘सशरीर कोर्ट में पेश करना’, इसका मतलब कि बंदी को प्रत्यक्ष रूप से कोर्ट में पेश करना। इस संदर्भ में, कोर्ट का आदेश होता है कि, रिट याचिका में जिस किसी व्यक्ति की चर्चा है उसको कोर्ट में पेश किया जाए। यदि किसी व्यक्ति को अवैध रूप से प्रतिबंधित या कैद किया गया है और उसे उसकी मौलिक स्वतंत्रता के अधिकारों से वंचित किया गया है, तो उसके लिए ‘हैबिअस कॉर्पस’ की एक रिट याचिका दायर की जा सकती है ताकि अदालत से उसकी रिहाई को सुनिश्चित करने के लिए कहा जा सके। अदालत किसी भी लोक सेवक (अधिकारी), जिसके पास कोई व्यक्ति अवैध रूप से उसकी हिरासत में है, अदालत उसको हैबिअस कॉर्पस की रिट जारी कर सकता है, और कोर्ट उस व्यक्ति (कैदी) को अदालत में पेश करने के लिए उस अधिकारी को आदेश दे सकता है। इस प्रकार, अदालत किसी भी व्यक्ति के हिरासत की परिस्थितियों की जांच करती है और गैर-कानूनी ढंग से लिए गए हिरासत के विरुद्ध आवश्यक निर्णय दे सकती है। कैदियों के अवैध अमानवीय व्यवहार के मामलों में भी अदालत ‘हैबिअस कॉर्पस’ की रिट जारी कर सकती है। हैबिअस कॉर्पस का आवेदन हिरासत में लिया गया व्यक्ति या तो खुद याचिका दायर कर सकता है या कोई अन्य व्यक्ति, जो कैदी को पहचानता है, उसकी ओर से याचिका दायर कर सकता है।

उदाहरण के लिए, यदि किसी कैदी के साथ जेल में दुर्व्यवहार किया जा रहा है, तो वह इस दुर्व्यवहार के खिलाफ हैबिअस कॉर्पस की याचिका दायर कर सकता है।

2. मेंडमस/ (कोर्ट का आदेश या परमादेश) अदालत किसी भी प्राधिकरण/प्राधिकारी को अपने सार्वजनिक कर्तव्य का क़ानूनी रूप से पालन करने का आदेश देने के लिए ‘मेंडमस’ की एक रिट जारी कर सकता है। इसे कानूनन लागू कराने के लिए, यह बताना आवश्यक है कि सार्वजनिक प्राधिकरण/प्राधिकारी का यह अनिवार्य कानूनी कर्तव्य है, और याचिकाकर्ता का यह कानूनी अधिकार है। हालांकि, भारत के राष्ट्रपति या किसी राज्य के राज्यपाल या फिर विधान-मंडल के अधिकारियों (स्पीकर, चेयरमैन, आदि) के खिलाफ लोग ‘मेंडमस’ की रिट याचिका दायर नहीं कर सकते हैं। मेंडमस की याचिका का आवेदन करने से पहले, याचिकाकर्ता को उस प्राधिकरण/प्राधिकारी से संपर्क करके अपने अधिकारों को सुनिश्चित करने की स्पष्ट मांग करनी पड़ती है। संपर्क करने के बावजूद जब प्राधिकरण/प्राधिकारी इससे इनकार करता है, तब मेंडमस याचिका के लिए आवेदन किया जा सकता है।

जैसे, समझने के लिए, यदि, बार-बार शिकायतों के बावजूद, एक नगर निगम किसी क्षेत्र में पानी की आपूर्ति देने की अपने कानूनी कर्तव्यों को करने से मना करता है, तो उस क्षेत्र में रहने वाला कोई भी व्यक्ति उस नगर निगम को अपना काम करने के लिए एक मेंडमस याचिका दायर कर सकता है।

3. सर्टयोरेरी की रिट/याचिका तब लागू होती है जब कोई प्राधिकारी या उच्चतर न्यायालय अपने क़ानूनी सीमा को लांघता है, जिससे किसी नागरिक के अधिकारों का हनन होता है। अदालत किसी भी निचले न्यायिक प्राधिकरण/निचली अदालत ऐसे किसी आदेश को रद्द करने के लिए सर्टयोरेरी रिट जारी कर सकती है जो बिना किसी अधिकार या अपनी कानूनी शक्तियों को लाँघ कर लिया गया निर्णय हो। उदाहरण के लिए, यदि कोई औद्योगिक ट्रिब्यूनल, गैर-औद्योगिक मामलों में ऐसा कोई निर्णय देता है, जो उसके अधिकार क्षेत्र के बाहर है, तो पीड़ित व्यक्ति औद्योगिक ट्रिब्यूनल/न्यायालय के उस निर्णय को रद्द करने के लिए के लिए सुप्रीम कोर्ट या हाई कोर्ट में सर्टयोरेरी की रिट/याचिका दायर कर सकता है।

4. रोक याचिका/स्टे आर्डर/प्रतिबन्ध/निषेधादेश न्यायालय निचली अदालत/ट्रिब्यूनल को किसी ऐसे मामले पर कानूनी कार्यवाही को रोकने का आदेश देने के लिए ‘रोक याचिका’ जारी कर सकता है जो उसके अधिकार क्षेत्र से बाहर हो। इस याचिका का प्रयोग निचली अदालत को अपने कानूनी अधिकार की सीमा से बाहर जाने से रोकने के लिए किया जाता है और यह सुनिश्चित किया जाता है वह अपनी न्यायिक सीमा को न लांघे। रोक याचिका का प्रयोग उस स्थिति में भी किया जा सकता है जब एक निचली अदालत/न्यायिक प्राधिकारी ने निष्पक्ष न्याय के नियमों का पालन नहीं किया है, अर्थात वह पक्षपात करता है या दोनों पक्षों को नहीं सुनता है।

उदाहरण के लिए, यदि कोई औद्योगिक ट्रिब्यूनल/न्यायालय बिना किसी अधिकार के गैर-औद्योगिक विवाद में निर्णय लेता है, तो ऐसे में एक पीड़ित व्यक्ति उस औद्योगिक ट्रिब्यूनल के लिए गए फैसले पर रोक लगाने के लिए हाई कोर्ट या सुप्रीम कोर्ट में एक ‘रोक याचिका’ दायर कर सकता है।

5. क्यू वारंटो/ अधिकार पृच्छा (एक याचिका है जिसके माध्यम से किसी व्यक्ति से यह पूछा जाता है कि उसने किस अधिकार या शक्ति के तहत निर्णय लिया है।) ‘क्यू वारंटो’ रिट एक ऐसा कानून है जिसके आधार पर अदालत किसी भी ऐसे व्यक्ति से प्रश्न पूछ सकता है कि किन प्रमाणों के आधार पर यह निश्चित किया जाए कि उस पद पर आसीन रहने का उसका वास्तविक अधिकार है। यदि उन्हें उस सार्वजनिक पद पर बने रहने का अधिकार नहीं है, तो उन्हें कोर्ट के आदेश द्वारा उस पद से हटाया जा सकता है। यह कानून कार्यपालिका द्वारा किसी सार्वजनिक कार्यालय या पद पर किये जाने वाले अवैध नियुक्तियों को नियंत्रित करता है, और नागरिकों को ऐसे लोगों से बचाता है जो अवैध रूप से सार्वजनिक पद पर आसीन होकर नागरिकों को उनके अधिकारों से वंचित रखते हैं। क्यू वारंटो की याचिका करने के लिए, याचिकाकर्ता को अदालत में यह दिखाना होता है कि यह कार्यालय या पद एक सार्वजनिक कार्यालय/पद है और इस पद पर बने रहने के लिए उस व्यक्ति के पास कोई कानूनी अधिकार नहीं है। इससे इस बात की जांच की जाती है कि उस अधिकारी की नियुक्ति कानूनी रूप से सही है या नहीं।

उदाहरण के लिए, यदि किसी को लगता है कि विधान सभा के अध्यक्ष/स्पीकर के पास स्पीकर पद पर बने रहने की योग्यता नहीं है, तो वे इस नियुक्ति के खिलाफ पूछताछ करने तथा क्यू वारंट का आदेश जारी करने के लिए कोर्ट का दरवाजा खटखटा सकते हैं।

संवैधानिक उपचार के लिए कौन आवेदन कर सकता है?

कोई भी पीड़ित व्यक्ति जिसके मौलिक अधिकारों का उल्लंघन किया गया हो, वह हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट में एक रिट याचिका दायर कर के संवैधानिक उपचार पा कर सकता है।

हैबिअस कॉर्पस /बंदी प्रत्यक्षीकरण और मेंडमस/परमादेश के लिए, पीड़ित व्यक्ति के अलावा कोई अन्य व्यक्ति भी उस विशेष मुद्दे की मांग करने के लिए याचिका दायर कर सकता है।

यह समझना जरूरी है कि सभी मौलिक अधिकार हर एक व्यक्ति को एक समान प्राप्त नहीं हैं। उदाहरण के लिए, ‘रोजगार में समान अवसर का अधिकार’ और ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार’ केवल देश के नागरिकों तक ही सीमित हैं। वहीं दूसरी तरफ, ‘जीवन जीने का अधिकार’/ प्राण और दैहिक स्वतंत्रता का संरक्षण और कानून के नजर में ‘समान व्यवहार का अधिकार’ जैसे मौलिक अधिकार सभी लोगों के लिए है, चाहे वो देश के नागरिक हों या गैर-नागरिक। कोई भी व्यक्ति अपने किसी भी मौलिक अधिकार को पाने के लिए संवैधानिक उपचार/गुहार की मांग कर सकता है, और एक रिट याचिका दायर कर सकता है।

संवैधानिक उपचारों की मांग करने के लिए नागरिक किन-किन संस्थाओं के समक्ष अपनी याचिका दायर कर सकता है?

कोई व्यक्ति अपने मौलिक अधिकारों को सुनिश्चित करने के लिए भारत के सुप्रीम कोर्ट या अपने संबंधित राज्य के हाई कोर्ट में रिट याचिका दायर कर सकता है।

अगर किसी व्यक्ति के मौलिक अधिकारों का हनन होता है, तो सुप्रीम कोर्ट के पास ऐसे व्यक्ति को संवैधानिक उपचार प्रदान करने की शक्ति है। सुप्रीम कोर्ट में ‘संवैधानिक उपचार का अधिकार’, अपने आप में ही किसी भी व्यक्ति का एक मौलिक अधिकार होता है। हालांकि, आपातकाल के दौरान सुप्रीम कोर्ट से मिलने वाला यह ‘संवैधानिक उपचार का अधिकार’ निलंबित भी हो सकता है।

राज्य के हाई कोर्टों को भी संवैधानिक उपचार प्रदान करने की शक्ति होती है। मौलिक अधिकारों के अलावा, हाई कोर्ट के पास अन्य कई और उद्देश्यों के लिए भी संवैधानिक उपचार देने की शक्ति होती है, जैसे कि अन्य कानूनी अधिकारों की रक्षा करना। हालांकि, किसी भी हाई कोर्ट में संवैधानिक उपचार प्राप्त करने के अधिकार को मौलिक अधिकार का दर्जा नहीं है। हर एक राज्य में कुछ क्षेत्रीय प्रतिबंध या सीमाएं होती हैं, इसलिए उसी क्षेत्र से संबंधित हाई कोर्ट में संवैधानिक उपचार के लिए रिट याचिका दायर की जा सकती जहां किसी कानून का उल्लंघन होता है।

संवैधानिक उपचार के अधिकार को प्राप्त करने की क्या सीमाएँ हैं?

1. यदि कोई व्यक्ति किसी विशेष मुद्दा के लिए हाई कोर्ट में एक रिट याचिका पहले दायर कर चुका है, तो वह अब उसी रिट के तहत राहत मांगने के लिए सुप्रीम कोर्ट में दूसरी याचिका दायर नहीं कर सकता है।

2. यूं तो रिट याचिका दायर करने के लिए कोई समय सीमा तय नहीं है, लेकिन सुप्रीम कोर्ट या हाई कोर्ट याचिकाकर्ता को राहत देने से इनकार कर सकता है अगर याचिका दायर करने में अनावश्यक देरी हुई हो, और जिसके वजह से निर्णय लेने की बाध्यता प्रभावित हो रही हो।

रिट याचिका ऑनलाइन कैसे दायर करें?

1. भारत के सुप्रीम कोर्ट की वेबसाइट पर जाएं।

2. यहाँ, दिये गए होम मेन्यू के नीचे ई-फाइलिंग मेन्यू पर क्लिक करें।

3. अगर पहली बार याचिका दायर की जा रही है, तो पेज के सबसे दाहिने कोने पर ‘नया पंजीकरण'(न्यू रजिस्ट्रेशन) पर क्लिक करें। यदि रजिस्ट्रेशन पहले ही हो चुका है, तो स्टेप-7 पर जाएँ।

4. जब ‘यूजर टाइप’ पूछा जाए, तो ‘पेटिशनर इन पर्सन’ को चुनें, जिसके उपर यह सब मेनू दिखाई देगा।

5. आवश्यक जानकारी भरने के बाद, पेज के अंत में ‘साइन अप’ बटन पर क्लिक करें।

6. यहाँ रजिस्ट्रेशन पूरा करने के बाद, ‘ई-फीलिंग’ पेज पर वापस जाएं।

7. ‘लॉगिन’ विकल्प पर क्लिक करें।

8. जो मेनू दिखाई देगा। उसमें आवश्यक जानकारी भरें।

9. लॉग इन करने के बाद, ‘न्यू ई-फाइलिंग’ पर क्लिक करें।

10. एक पेज खुलेगा, जिसमें आवश्यक जानकारी भरें। यदि याचिका निचली अदालत के किसी फैसले के खिलाफ है, तो ‘लोअर कोर्ट’ बटन पर क्लिक करें। इसी तरह, हर कैटेगरी पर क्लिक करें और मांगी गई जानकारी को भरें।

11. यदि याचिका के साथ कोई अन्य दस्तावेज जमा करन हो, तो ‘पेटीशन विथ अदर डॉक्यूमेंट’ पर क्लिक करें।

12. सभी आवश्यक जानकारी भरने और पैसों का भुगतान पूरा होने के बाद, एक आवेदन संख्या दी जाएगी।

रिट याचिका ऑफलाइन कैसे दायर करें?

1. रिट याचिका दायर करने के लिए फॉर्म/प्रपत्र प्राप्त करें अपने मौलिक अधिकार की रक्षा करने की मांग करने वाला व्यक्ति संबंधित अदालत अर्थात हाई कोर्ट या सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर सकता है। संबंधित कोर्ट द्वारा दिए गए निर्धारित फॉर्म/प्रपत्र में ही याचिका दायर की जानी चाहिए। सुप्रीम कोर्ट में रिट याचिका दायर करने के लिए निर्धारित फॉर्म वहीं से प्राप्त किया जा सकता है। उच्च न्यायालयों के लिए, प्रत्येक हाई कोर्ट द्वारा निर्धारित अलग-अलग फॉर्म/प्रपत्र, हैं जिसे संबंधित हाई कोर्ट की वेबसाइट से प्राप्त किया जा सकता है।

2. याचिका का ड्राफ्ट तैयार करें संबंधित कोर्ट से फॉर्म लेने के बाद, याचिका में निम्नलिखित जानकारी भरना आवश्यक है:

• याचिका दायर करने वाले व्यक्ति का नाम और अन्य जानकारी।

• उस व्यक्ति/संस्था का नाम और उससे संबंधित अन्य जानकारी जिसके खिलाफ याचिका दायर की जा रही है।

• पीड़ित व्यक्ति के किस मौलिक अधिकार का हनन हुआ है।

• पीड़ित व्यक्ति द्वारा उठाई गयी न्याय की मांग।

• मांग उठाने के कारण।

• (यदि याचिका सुप्रीम कोर्ट में दायर की जा रही है) क्या इस मामले के लिए किसी हाई कोर्ट में याचिका दायर की जा चुकी है? और यदि हां, तो उस हाई कोर्ट द्वारा पारित आदेश।

3. यदि आवश्यक हो तो दस्तावेज संलग्न करें,

• यदि याचिका निचली अदालत के आदेश के खिलाफ है, तो ऐसे आदेश की मूल या प्रमाणित प्रति याचिका के साथ संलग्न की जानी चाहिए।

• याचिका दायर करने वाले तथ्यों का शपथ-पत्र/हलफनामा/एफिडेविट।

• कोई अन्य जरूरी दस्तावेज। यदि कोई दस्तावेज याचिकाकर्ता के पास मूल रूप (हार्ड कॉपी) में नहीं है, तो ऐसे दस्तावेजों की एक सूची याचिका के साथ संलग्न की जानी चाहिए।

4. याचिका जमा करें याचिका को पूरी तरह से ड्राफ्ट करने के बाद, इसे याचिकाकर्ता की प्राथमिकता के अनुसार सुप्रीम कोर्ट या संबंधित हाई कोर्ट, के फाइलिंग काउंटर पर जमा किया जाना चाहिए।