Jan 24, 2024
कोर्ट ने टू-फिंगर टेस्ट करने के लिए अस्पताल को किया दंडित
ट्रिगर वॉर्निंग: नीचे दी गई जानकारी शारीरिक और यौन हिंसा पर है, यह जानकारी कुछ लोगों को परेशान या बेचैन कर सकती है।
हाल ही में, पालमपुर के एक सरकारी अस्पताल को यौन शोषण सर्वाइवर, एक बच्चे पर ‘टू-फिंगर’ टेस्ट करने और मेडिको लीगल सर्टिफिकेट साझा करने के लिए हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय की कड़ी फटकार लगी।कोर्ट ने कहा की यह बच्चे के लिए “अपमानजनक, आत्म-दोषपूर्ण और आत्म-दोषारोपक था।” यह कहते हुए कि दोषी को किसी भी हाल में छोड़ा नहीं जा सकता है, उच्च न्यायालय ने सवाईवर को 5 लाख रूपये का मुआवजा देने का आदेश दिया।
‘न्याया इस सप्ताह’ में, आइए समझें कि पालमपुर अस्पताल को किस प्रोटोकॉल का पालन करना था और उन्हें दंडित क्यों किया गया।
मेडिको-लीगल जांच क्या है?
दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 357 (सी) के अनुसार, यौन उत्पीड़न के सवाईवर किसी भी निजी या सरकारी अस्पताल से मुफ्त में प्राथामिक और जरूरी इलाज करा सकते हैं।। हालांकि सर्वाइवर के लिए मेडिकल जांच कराने की कोई कानूनी आवश्यकता नहीं है, लेकिन सर्वाइवर की शारीरिक स्थिति की एक रिपोर्ट जिसमें डीएनए स्वैब, चोटों का विवरण आदि जैसी फोरेंसिक जानकारी दी जाती है पुलिस जांच में मदद करती है। सर्वाइवर या नाबालिग सर्वाइवर के माता-पिता इस मेडिकल जांच को मना कर सकते हैं, लेकिन फिर भी उनका इलाज करवाने का अधिकार जीवित रहेगा।। आपराधिक कानून संशोधन अधिनियम, 2013 और यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण अधिनियम (POCSO) अधिनियम, 2012 की धारा 27 भी यह सुनिश्चित करने के लिए विशिष्ट नियम बनाती है कि मेडिकलजांच से सर्वाइवर को कोई असुविधा या अपमान न हो। कुछ अवसरों पर, न्यायालय भी मेडिकल जांचकराने का आदेश दे सकता है।
मेडिकल जांच के दौरान अपनाई जाने वाली प्रक्रिया क्या है?
यौन शोषण के मामले में किसी भी मेडिकल जांच के दौरान सबसे पहला काम जरूरी इलाज देना है, फिर इसके बाद फाॅरेंसिक सबूत इकट्ठा करना है। कानून के तहत केवल महिला डॉक्टर ही मेडिकल जांच कर सकती है। सर्वाइवर किसी भी समय मेडिकल जांच के दौरान किसी भी कदम को रोकना या छोड़ना चुन सकती है।
इस प्रक्रिया के दौरान किसी भी समय सर्वाइवर की गरिमा का उल्लंघन नहीं किया जाना चाहिए। स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय ने यौन हिंसा सर्वाइवर्स के लिए मेडिको-लीगल देखभाल पर अपने 2014 के दिशानिर्देशों और प्रोटोकॉल में विस्तृत प्रोटोकॉल साझा किए हैं, जिनका मेडिकल जांच करते समय पालन किया जाना चाहिए। यौन उत्पीड़न से बचे लोगों के लिए हमारी मेडिको-लीगल गाइड में उन लोगों के अधिकारों और चिकित्सकों के कर्तव्यों के बारे में विवरण शामिल है। 2022 में, भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने चिकित्सा के एक भाग के रूप में ‘टू-फिंगर टेस्ट’ पर स्पष्ट रूप से प्रतिबंध लगाया था ।
टू-फिंगर टेस्ट पर प्रतिबंध क्यों लगाया गया?
टू-फिंगर टेस्ट करने के लिए, डॉक्टर सर्वाइवर के हाइमन के ढीलेपन की जांच करने के लिए सर्वाइवर की योनि (वेजाइना ) में दो उंगलियां डालता है। पुराने समय में वर्जिनिटी (कौमार्य) की जांच के लिए इसे किया जाता था।। हालाँकि, बलात्कार के संदर्भ में इस परीक्षण की कोई वैज्ञानिक वैधता नहीं है। 2018 विश्व स्वास्थ्य संगठन की हैंडबुक भी कहती है कि टू फिंगर जांच से मिली जानकारी का बलात्कार होने या नहीं से कोई लेना-देना नहीं है।।
भारत में, टू फिंगर जांच को आपराधिक कानून संशोधन अधिनियम 2013 के तहत जोड़े गए भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 53 (ए) के तहत प्रतिबंधित किया गया था। इसमें कहा गया है कि किसी व्यक्ति के पिछले यौन इतिहास का बलात्कार के मामलों में उनकी गवाही से कोई मतलब नहीं है। 2014 के दिशानिर्देश भी टू फिंगर टेस्ट पर प्रतिबंध लगाते हैं। हालाँकि, ये दिशानिर्देश कानूनी रूप से बाध्यकारी नहीं हैं।
2013 में, लिल्लू बनाम हरियाणा राज्य मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि टू-फिंगर टेस्ट निर्णायक रूप से पुष्टि नहीं कर सकता है कि सर्वाइवर ने बलात्कार को रोकने के लिए सहमति दी थी। यह सर्वाइवर की गोपनीयता, शारीरिक और मानसिक अखंडता और गरिमा का उल्लंघन करता है। अंततः, 2022 में, झारखंड राज्य बनाम शैलेन्द्र कुमार के मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने यह दोहराते हुए टू फिंगर टेस्ट पर कानूनी प्रतिबंध लगा दिया कि जो कोई भी ये जांच करेगा, वह भी दुराचार का दोषी माना जाएगा।
सर्वाइवर को मेडिकल जांच के दौरान क्या ध्यान रखना चाहिए?
सभी सरकारी और निजी अस्पतालों को यौन उत्पीड़न सर्वाइवर्स को बिना किसी देरी के चिकित्सा करनी चाहिए। अस्पतालों को पुलिस या न्यायालय के आदेश के इंतजार करने की जरूरत नहीं है। अस्पताल के कर्मचारियों को किसी भी मेडिकल प्रक्रिया को आगे बढ़ाने से पहले सर्वाइवर की सहमति को रिकॉर्ड करना चाहिए। सर्वाइवर के पास मेडिकल जांच से इनकार करने और पुलिस को घटना की रिपोर्ट न करने का विकल्प होता है। दूसरी ओर, अस्पताल सीआरपीसी की धारा 357 (सी) के अनुसार इसकी रिपोर्ट करना कानूनी दायित्व के तहत है। उस मामले में, अस्पताल को स्वतंत्र रूप से “मेडिको-लीगल केस” दर्ज करना होगा और इस बात का ध्यान रखना होगा कि सर्वाइवर के निजता के अधिकार का उल्लंघन न हो। इसके अलावा, अगर सर्वाइवर नाबालिग है, तो POCSO अधिनियम की धारा 19 के तहत घटना की रिपोर्ट पुलिस को करना जरूरी है। डॉक्टर मेडिकल जांच का विवरण तुरंत और 2014 दिशानिर्देशों में निर्धारित ‘प्रोफार्मा’ के अनुसार रिकॉर्ड करने के लिए भी बाध्य है।
भारतीय कानून ऐसे किसी भी काम की इजाजत नहीं देता है, जो मेडिकल जांच के दौरान सर्वाइवर को दोबारा ठेस पहुंचाता हो या उसे कलंकित करता हो। अगर सर्वाइवर की टू- फिंगर जांच होती है, तो वह डाॅक्टर के खिलाफ शिकायत दर्ज कर सकती है।
अधिक जानने के लिए, यौन उत्पीड़न सर्वाइवर्स के लिए हमारी मेडिको-लीगल गाइड पढ़ें।